শঙ্খ ঘোষ: মেঘের মতো মানুষ

প্রয়াগ শুক্ল

 




কবি, গল্পকার ও শিল্প-সমালোচক। শঙ্খ ঘোষের বহু কবিতার হিন্দি-অনুবাদক। শঙ্খ ঘোষ সম্বন্ধে তাঁর এই শ্রদ্ধার্ঘ্যটি মূল হিন্দি থেকে অনুবাদ করেছেন সত্যব্রত ঘোষ। মূল হিন্দি রচনাটি নিচে দেওয়া হল।

 

 

 

 

শঙ্খ ঘোষ (১৯৩২-২০২১) বাদে আর কেউ কি শঙ্খ ঘোষের কবিতা লিখতে পারতেন? গম্ভীর গহন করুণাময়ী বাণী ওঁর মর্মেই স্থাপিত ছিল যা আমরা শুনেছি ওঁর উচ্চারণে। যা আমরা কখনও ভুলতে পারব না। ওঁর রচিত ‘মেঘের মতো মানুষ’ কবিতাটির মতো উনিও ছিলেন এক মেঘ— যিনি ছায়া দেন। জল দেন। আশ্বাস দেন। ভরসা জোগান। অন্যের দুঃখ-সুখের ঘূর্ণাবর্তে ওলটপালট খান। প্রবাহমান থাকেন। থেমেও যান। কিছু শুনতে বা বুঝতে। যা মঙ্গলকারী তার কর্ষণে উনি ব্যস্ত। ওনার কবিতার যে বিশ্ব তা বিপুল ও প্রসারিত। নিজের শহর কলকাতার সঙ্গে শঙ্খ ঘোষ যে আন্তরিকতায় জড়িয়ে ধরে ছিলেন, তেমন করে আর কোনও কবি কখনও ছিলেন বলে মনে তো পড়ে না। ওঁর গদ্যে ও পদ্যে এই মহানগরের বৃষ্টি আছে। গ্রীষ্ম আছে। গাছপালা আছে। ট্রামলাইন আছে। ঘরবাড়ি-দোকানপাট আছে। গলির মোড় আছে। প্রেম আছে। রোগ শোক আছে। রাগ আছে। উদাসীনতা আছে। আছে নিজস্ব ঐশ্বর্যের এক সৌন্দর্য। ভিখারিনীরা আছেন। জীবনের নানা রং আর রূপ আছে। আর আছে সৃষ্টির হাজারো উপাদান যুগে যুগে যা কবিতার বিষয় হয়ে উঠেছে। মরমী প্রত্যেক কবির মতোই উনি সেই উপাদানগুলির নিত্যনতুন অর্থ জুগিয়েছেন। সেগুলি প্রসঙ্গে এমন কিছু কথা তিনি বলেছেন যা ওনার আগে ঠিক অমনভাবে বলা হয়ে ওঠেনি। ‘কাব্য তত্ত্ব’ নামে রচিত একটি কবিতায় উনি বলছেন—

কহী থী কাল কেয়া ইয়েহ বাত?
সম্ভব হ্যায়। লেকিন নহী মানতা উসে আজ।
কাল জো থা ম্যায়, ওঅহীঁ হু ম্যায় আজ ভি
ইসকা প্রমাণ দো।
মনুষ্য নহীঁ হ্যায় শালিগ্রাম
কি রহেগা এক হী জ্যায়সা জীবন ভর।
বীচ-বীচ মে আনা হোগা পাস,
বীচ-বীচ মে ভরেগা উড়ান মন।
কহা থা কাল ‘পর্বত শিখর হী হ্যায় মেরি পসন্দ’
সম্ভব হ্যায় মুঝে আজ চাহিয়ে সমুদ্র হী।
দোনো মে কোই বিরোধ তো হ্যায় নহীঁ,
মুঠী মেঁ ভরতা হুঁ পুরা ভুবন হী।

প্রকৃতিরই উপাদান নিয়ে ‘পরিবর্তন’-এর কথা, পরিবর্তনশীলতার কথা। তার সঙ্কল্পের কথা। তার প্রয়োজনের কথা। এমন যে আরেকটি কবিতা পড়েছি স্মরণে নেই।

ওঁর কবিতা প্রার্থনাময়। এই জীবন এই জগতের কল্যাণ প্রার্থনায় মগ্ন। প্রকৃতির প্রতি ওঁর প্রেম অগাধ। এবং তার অনেকগুলি স্তর। বহু কবি অতি অল্প শব্দে কবিতা রচনা করে থাকেন। উনি দৃশ্য বর্ণনায় কখনও কার্পণ্য করেননি। ‘আঁখো কা এক অহশ্য জল’, করুণা জল ওনার মর্মস্থলেতেই সত্যি হয়ে রয়ে গেছিল। ঘন আবেগের   হাস্যময় বা অশ্রুসিক্ত কবিতা নয় ওনার। সংক্ষেপে, প্রাসঙ্গিক হয়ে, নিয়ম না মেনে উনি ‘বিপুলতা’কেই রচনা করেন।

ছোট একটি কবিতায় উনি লিখছেন—

হুয়া তো হুয়া, ওঅহীঁ হী ওঅহীঁ
রখনা জীবন কো
ইসী তরহ
ইয়েহী নহীঁ, শিখো কুছ
রাস্তে পর, গুমসুম
বৈঠী ভিখারিন কী আঁখো কে
ধীর প্রতিবাদ সে
হ্যায়, য়েহ সব ভী হ্যায়।

হ্যাঁ, ওঁর কবিতা ধীর-প্রতিবাদেরই কবিতা: অন্যায়ের যা প্রতিবাদ করে, একেবারে নিজের পদ্ধতিতে করে, যার অহিংস আঘাত বড়ই গভীর। (অন্য) একটি কবিতা আছে ওঁর, সরল বাক্যে রচিত, প্রতিদিন ভিড়ে ভরা বাস-ট্রামে লোকেরা যেভাবে বলে থাকে, এবং সেগুলিকে একটির পর একটিকে সাজিয়ে উনি এমনভাবে তা নির্মাণ করেছেন যে আজকের মানুষের অবস্থাটি ফুটে একটি ‘কাঁপুনি’-র অনুভূতি হয়ে ওঠে।

কবিতার নাম ‘ভিড়’:

উতরনা হ্যায়? উতর পড়িয়ে হুজুর
উতারকর চর্বি কুছ আপনি ইয়েহ।’
‘আঁখে নহীঁ হ্যায়? অন্ধে হো কেয়া?
আরে তিরছে হো যাও, জারা সিঁকুড়ো তো।’
ছোটে সে হো যাও ঔর।’
ভিড় সে ঘিরা হুয়া,
কিতনা ঔর ছোটা বনুঁ ম্যাঁয়
ঈশ্বর!

রহুঁ নহীঁ আপনে জিতনা ভী
কহীঁ ভী
খুলে মেঁ, বাজার মেঁ, একান্ত মেঁ?

অন্তিম তিন পঙক্তি মর্মেতেই আঘাত হানে এক। ‘আমি কি নিত্য আমারও সমান’ হব না-র যে ব্যথা এতটা বিস্তৃত হয় যে কবিতায় তা আর সীমাবদ্ধ থাকে না। শঙ্খ ঘোষের জোর এখানেই। আপনাকে উনি নিজের দিশা সঙ্কেত অনুযায়ী কিছু দূর নিয়ে যাবেন, তার পরে আপনার থেকে আলাদা হয়ে যাবেন যাতে আপনি রচনার গহীনে পৌঁছে নিজের মর্মতে তা স্পর্শ করতে পারেন। পাঠকের উপর কোনও জোরাজুরি নেই, কোথাও ভার বইতে দেন না উনি। হ্যাঁ, পাঠকদের উনি বরাবরই আন্তরিকভাবে সম্বোধন করে এসেছেন। উনি তাঁদের সহমর্মী ভেবে লিখেছেন এবং ওঁর তরফ থেকে সহমর্মিতার এই ভাবনার জ্ঞাপন সহজেই পৌঁছেছে।

উনি বহুপঠিত। শিল্পের বিভিন্ন আঙ্গিকে ওঁর গভীর আগ্রহ ছিল। কলকাতায় ওঁর উল্টোডাঙার আবাসে একাধিকবার গেছি। ওঁর সংগৃহীত বইপত্রের দিকে নজর গেছে। বিভিন্ন বিষয় নিয়ে ওঁর সঙ্গে কথা হয়েছে। প্রতিবার সমৃদ্ধ হয়েই ফিরেছি। সবার জন্যেই যেন ওঁর দ্বার খোলা ছিল। ওঁর মৃদু হাসি, স্মিতভাষ মনে পড়ে। কৌতুকের কোনও প্রসঙ্গ উঠলে ওঁর হাসি আরেকটু মুখর হত। ওনার অনেক স্মৃতি ভরে আছে মনে: ১৯৮৩ সালে আমন্ত্রিত হয়ে শঙ্খ ঘোষ এসেছিলেন ভারত ভবনে— পনেরো দিন ছিলেন। আমি দিল্লি থেকে এসেছিলাম। পরিকল্পনা ছিল ওঁর সঙ্গে বসে ওঁরই কবিতাগুলি অনুবাদ করব— তারপরে ওঁর একটি সংগ্রহ তৈরি হবে। হয়েও ছিল। ভারত ভবনের পরিসরে একখানে আমরা বসতাম— একান্তে। ওঁর সঙ্গে বসে ঝিলটাকে দেখতাম। মাঝে মাঝে জোর হাওয়া বইলে কাগজপত্রগুলি উড়ে যেত। দুজনে সেগুলি জড়ো করতাম। কোনও পঙক্তি, কোনও দৃশ্যকল্প। কোনও দৃশ্য নিয়ে আলোচনা করলে ওঁর অভিজ্ঞতার গভীরতা টের পেতাম। কম কথার মানুষ ছিলেন উনি। আমাকে আমার মতো এগিয়ে যেতে দিতেন। ওঁকে অনুবাদ পড়িয়ে শোনালে উনি মৃদু স্বরে নির্মিতি নিয়ে বলতেন। একদিন সাঁচি গেলাম। ফিরতে না ফিরতেই লিখলেন ‘সাঁচি’ নামে একটি কবিতা— সাঁচিকে কেন্দ্র করে। শিল্পী ও শিল্পী চিন্তাবিদ জে স্বামীনাথনও আমাদের সঙ্গে সাঁচি গেছিলেন। স্বামীর সঙ্গে আলাপ হয়ে ওঁর খুব ভালো লেগেছিল। সন্ধ্যায় বন্ধুরা আসর জমাত। উনি তো মদ্যপান করতেন না, কিন্তু আমাদের সঙ্গে বসতেন। হিন্দি বাংলা সাহিত্য নিয়ে কত আলোচনা। রবীন্দ্রনাথ নিয়ে, জীবনানন্দ নিয়ে। কলকাতায় ফিরে ওঁর ভোপাল বাস নিয়ে ‘ভাষা নগর’ পত্রিকায় লেখেন, অব্যবহিত পরে যা ওঁর একটি বইতে সঙ্কলিত হয়েছে।

কলকাতায় গেলেই ওঁর বাড়িতে যেতাম। বিদগ্ধ হিন্দি কবি লেখক গগন গিল একবার সঙ্গে ছিলেন। সেই সন্ধ্যার স্মৃতিও অপূর্ব। দিল্লি ফিরে সেই সন্ধ্যার অভিজ্ঞতা নিয়ে গগন লেখেন, যা ওঁর একটি বইতে সঙ্কলিত হয়েছে। ওঁর রচিত ‘মুখ ঢেকে যায় বিজ্ঞাপনে’ কবিতাটি মনে পড়ে, বাংলার পাঠকসমাজ তো সেটি কণ্ঠস্থ করে ফেলেছেন। অন্য কত কিছু মনে পড়ে। কী চমৎকার সুছাঁদের গদ্য লিখতেন উনি। বিনম্র, সদ্ভাবনাময়, স্নেহসিক্ত শঙ্খ ঘোষের কবিতাগুলির মতো। সুগভীর।

शंख घोष : मेघ जैसा मनुष्‍य

प्रयाग शुक्‍ल

 

शंख घोष की कविताएँ भला शंख घोष (1932-2021) के अलावा और कौन लिख सकता था? उनमें वही धीर गंभीर गहन करुणाम्‍यी वाणी बसी हु‍ई है जो हमने सुनी है उनके मुख से। और जिसे हम कभी भुला न पाएँगे। वह अपनी ही एक कविता ‘मेघ जैसा मनुष्‍य’ की तरह के ही एक ऐसे ‘मेघ’ थे- जो छाया देता है। जल देता है। आश्‍वासन और भरोसा देता है। वह दूसरों के दु:ख-सुख से उमड़ता-घुमड़ता है। प्रवाह में रहता है। रुक भी जाता है। मानों कुछ सुनने-समझने के लिए ही। वह ‘अच्‍छाई’ की फ़सल उगाता है। उनकी कविता का संसार विपुल और व्‍यापक है। याद नहीं पड़ता कि किसी और कवि ने अपने शहर के साथ ऐसा संबंध बनाया हो जैसा शंघ घोष ने कलकत्‍ता-कोलकाता, के साथ बनाया था। उनके गद्य-पद्य में इस महानगर की बारिशें है। ग्रीष्‍म है। पेड़-पौधे हैं। ट्राम लाइने हैं। घर-दुकानें है। गलियों के मोड़-घुमाव हैं। प्रेम है। रोग शोक हैं। राग-विराग हैं। उसका अपना ही एक ऐश्‍वर्य और सौंदर्य है। भीड़ है। भिखारिने हैं। जीवन है कई रंग-रूपों में। और हैं सृष्टि की वे हज़ारहा चीजें भी, जो सदियों से कविता का विषय रही हैं और प्रत्‍येक मर्मस्‍पर्श कवि की तरह अपने ही ढंग से उन चीज़ों के, उपादानों के, नये-नये अर्थ-मर्म प्रकट करती रही हैं। उनके प्रसंग से कुछ ऐसा कहती रही हैं, जो पहले ठीक-ठीक उसी रूप में कहा नहीं गया था। ‘काव्‍य तत्‍व’ शीर्षक अपनी एक कविता में वह लिखते हैं:

कही थी कल क्‍या यह बात?
संभव है। लेकिन नहीं मानता उसे आज।
कल जो था मैं, वहीं हूँ मैं आज भी
इसका प्रमाण दो।
मनुष्‍य नहीं है शालिग्राम
कि रहेगा एक ही जैसा जीवन भर।
बीच-बीच में आना होगा पास,
बीच-बीच में भरेगा उड़ान मन।
कहा था कल ‘पर्वत शिखर ही है मेरी पसंद’
संभव है मुझे आज चाहिए समुद्र ही।
दोनों में  कोई विरोध तो है नहीं,
मुठी में भरता हूँ पूरा भुवन ही।

प्रकृति के ही उपादानों को लेकर ‘परिवर्तन’ की, परिवर्तन शीलता की। उसके संकल्‍प की। उसकी जरूरत की। और कोई दूसरी कविता ऐसी पढ़ी हो, ध्‍यान नहीं पड़ता।

उनकी कविताएँ प्रार्थनामय हैं। जीवन-जगत की कल्‍याण-प्रार्थना करती हुई। उनमें प्रकृति से अगाघ प्रेम है। वह बहुस्‍तरीय हैं। अनेकों कवियों की रचना बहुत कम शब्‍दों में करती हैं। वे दृश्‍य-चित्रों के वर्णन में कभी रूखी-सूखी नहीं हैं। उनमें ‘आँखों का एक अदृश्‍य जल’, करुणा-जल, सचमुच बसा हुआ है। वह भावुक होकर ‘हँसाने-रूलाने’ वाली कविताएँ नहीं हैं। किसी छोटे से, प्रसंग से, दृश्‍य से, वे एक ‘विराट’ रचती हैं।

एक छोटी-सी कविता में वह लिखते हैं:

हुआ तो हुआ, वहीं ही वहीं
रखना जीवन को
इसी तरह
यही नहीं, सीखो कुछ
रस्‍ते पर, गुमसुम
बैठी भिखारिन की आँखों के
धीर प्रतिवाद से
है, यह सब भी है।

हाँ, उनकी कविता धीर-प्रतिवाद की ही कविता है: वह अन्‍याय का प्रतिरोध करती है, बिल्‍कुल अपने तरीके से, जिसकी अहिंसक चोट बड़ी गहरी होती है। एक (और) कविता है, कुछ सरल से वाक्‍यों की, जो दिन भर किसी भीड़ भरी बस-ट्राम में बोले ही जाते हैं, और एक के बाद वे जिस तरह इसमें प्रस्‍तुत किये गये हैं, वे आज के मनुष्‍य-मात्र की स्थिति का एक ‘थर्राता’ सा अनुभव बन जाते हैं।

कविता है ‘भीड़’:

उतरना है? उतर पड़ि‍ये हुजूर,
उतारकर चर्बी कुछ अपनी यह।’
‘आँखें नहीं हैं? अन्‍धे हो क्‍या?
अरे तिरछे हो जाओं, जरा सिकुड़ो तो।‘
छोटे से हो जाओ और।’
भीड़ से घिरा हुआ,
कितना औेर छोटा बनूँ मैं
ईश्‍वर!

रहूँ नहीं अपने जितना भी
कहीं भी
खुले में, बाज़ार में, एकान्‍त में?

अंतिम तीन पंक्तियाँ मर्म पर एक आघात-सा करती हैं। ‘अपने जितना भी न रहूँ’ की व्‍यथा इस तरह व्‍यापने लगती है कि वह सिर्फ़ इसी कविता तक सीमित नहीं रहती। यही शंख घोष की शक्ति रही है। वे आपको किसी दिशा-संकेत से किसी ओर ले चलते हैं, फिर ‘अलग’ से हो जाते हैं, कि आप रचना का अर्थ मर्म अपनी तरह से टटोलें। वह कोई दबाव, कोई भार पाठक पर नहीं डालते। हाँ, उसे वे संबोधित हमेशा प्रेम से करते हैं। उसे अपना सगा समझते हैं। और उनकी ओर से  प्रेषित सगेपन की यह भावना, पाठक तक सहज ही पहुंच जाती है।

वह बहुपठित रहे हैं। विभिन्‍न कलाओं में उनकी गहरी दिलचस्‍पी रही है। कोलकता के उल्‍टाडांगा वाले उनके निवास में एकाधिक बार जाना हुआ है। उनके पुस्‍तक संग्रह पर नज़र पड़ी है। विभिन्‍न विषयों पर उनसे बातें हुई हैं। हर बार कुछ समृद्ध होकर लौटा हूँ। उनके दरवाजे मानों सबके लिए खुले थे। उनकी मृदुल हँसी, और स्मिति याद आती हैं। विनोद का कोई प्रसंग उनकी हँसी को थोड़ा और मुखर स्‍वर दे देता था। उनके साथ की बहुतेरी स्‍मृतियाँ हैं: 1983 में भारत भवन के निमंत्रण पर शंघ घोष भोपाल आये थे- 15 दिनों के लिए। मैं दिल्‍ली से पहुँचा था। योजना थी कि उनके साथ बैठकर उनकी कविताओं के अनुवाद करूँगा- फिर उनका एक संग्रह तैयार होगा । वह हुआ। हम भारत भवन के परिसर में एक ओर बैठते-एकांत में। झील वहाँ से दीखती थी। कभी कभी तेज हवा चलती तो हमारे कागज-पत्र उड़ने-से लगते। हम दोनों उन्‍हें सँभालते। किसी पंक्ति, किसी बिंब। किसी दृश्‍य पर, उनके साथ चर्चा का अनुभव विलक्षण होता। वह कम बोलने वाले थे। मुझे अपनी तरह से आगे बढ़ने देते। मैं उन्‍हें कोई अनुवाद पढ़कर सुनाता तो धीरे से मार्के की कोई बात कह देते। एक दिन हम साँची भी गये। अनंतर उन्‍होंने ‘सांची’ पर एक कविता लिखी- साँची के प्रसंग से। चित्रकार कला चिंतक जे. स्‍वामीनाथन भी उस यात्रा में हमारे साथ थे। स्‍वामी से मिलकर उन्‍हें बहुत अच्‍छा लगा था। शाम को मित्र-गोष्‍ठी जमती। वह तो मदिरापान नहीं करते थे, पर, साथ बैठते। कितनी ही बातें होतीं, हिंदी-बांग्‍ला साहित्‍य की। रवींद्रनाथ, जीवनानंद दास की। लौटकर भोपाल प्रवास पर उन्‍होंने ‘भाषा नगर’ पत्रिका में एक टिप्‍पणी भी लिखी थी जो अनंतर उनकी एक पुस्‍तक में भी संकलित हुई।

कोलकाता जाता तो उनके निवास पर जाता। एक बार हिंदी की प्रबुद्ध रचनाकार-कवि, गगन गिल साथ थीं। अद्भुत थी वह शाम भी। दिल्‍ली लौटकर गगन ने उस शाम पर एक टिप्‍पणी लिखी जो, अब उनकी एक पुस्‍तक में संकलित है। उनकी कविता ‘मुख ढेके जाय विज्ञापने’ की याद आती है, जो बांग्‍ला समाज ने मानों कंठस्‍थ ही तो कर डाली। अन्‍य और कितनी चीज़ों की भी याद आती है- गद्य भी उनका कितना सुघड़ सुंदर है। विनम्र सद्भावी, स्‍नेही, शंख घोष की रचनाएँ भी वैसी ही हैं। बहुत गहरी।

 

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